खोने
लगी तेरी परछाई ,
कुछ
पूछ रहा शायद सन्नाटा,
लम्हों
में क्यों बेचैनी छाई?
वक़्त
में क्यों तू पिघल
रहा हे?
मंजिल
में क्यों ये दुरी
आई?
खुद
से की उम्मीद
जो तुने,
क्या
वो इतना
ही रंग लाई?
होजा
उस हार पर सवार
तू;
जिसने
तेरी नैया हे डूबाई,
जीत
पर तेरा ही हक्क
हे;
तुने
ही ये रज़ा हे पाई.
शाम
ढल जाए आगोश में तेरी;
इतनी
कर ले खुद की गहराई,
रोशन
करले हर एक वो
सपना;
जिसके
लिए आखें हे जलाई.
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